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शोषण की खाद से पनपता नक्सलवाद – Jagran Forum

चिठ्ठाकारी
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बिहार में एक कहावत है “ज्यादा अत करने से दुर्गति हो जाती है”. भोजपुरी शब्दों को सही ढ़ंग से प्रस्तुत ना कर पाने का खेद है लेकिन शब्दों पर ना जाते हुए मात्र भावनाओं को समझे. उपरोक्त वाक्यांश का अर्थ है कि अधिक परेशान या हद से ज्यादा अत्याचार करने से दुर्गति हो जाती है.  हाल ही में जो कुछ छत्तीसगढ़ में हुआ वह शायद इसी अत का नतीजा माना जा सकता है.


सलवा जुड़ूम के नाम पर छत्तीसगढ़ से नक्सलवादियों को भगाने के लिए महेन्द्र कर्मा ने 2005 में एक अनोखो मिशन चलाया. सलवा जुड़ूम यानि मिशन मारो, रेप करो और जमीन हड़पों. कहा जाता है कि इस मिशन के तहत उन्होंने गांव वालों को नक्सलियों से लड़ने के लिए हथियार मुहैया कराएं और उन्हें नक्सलवादियों और माओवादियों से लड़ने के लिए एकजुठ किया. गांव वालों को नक्सलियों से आमने-सामने की लड़ाई के लिए तैयार कर वह दुनिया की निगाहों में हीरो बनना चाहते थे लेकिन अंदर की सच्चाई कुछ और थी.


सलवा जुडूम (Salwa Judum) कागजी पन्नों पर सरकार द्वारा तथाकथित रूप से सहायता प्राप्त नक्सवाद विरोधी आंदोलन माना जाता है लेकिन सत्य के धरातल पर यह एक खूनी खेल था जिसमें ना जानें कितने मासूम आदिवासियों की जान गई, बच्चें अनाथ हुए, लड़कियों का बलात्कार किया गया. अपनी जमीन, अपना घर, अपने लोग छिन जाने का डर और दर्द महसूस कर पाना हर किसी के लिए संभव नहीं होता.


सलवा जुडूम के नाम पर छत्तीसगढ़ के कई गांवों और आदिवासियों के रहने की जमीनों को हड़प लिया गया. माना जाता है कि इन जमीनों पर माननीय मुख्यमंत्री रमन सिंह के बेहद करीबी पूंजीपतियों की निगाहे थीं. और आज के समय में एक मुख्यमंत्री के लिए पूंजीपति किंगमेकर से कम नहीं होते. फिल्म शिवाजी का वह करोड़पति पूंजीपति इस संदर्भ में विचारणीय है जो फिल्म में अपना काम ना होने की सूरत में सरकार ही बदल देता है. पूंजीपतियों का प्रेशर और शायद कर्मा जी की हीरो बनने की चाहत ने नक्सलवाद की समस्या को नासूर बना दिया.


सत्ता और शक्ति का मेल अकसर इंसान को बर्बाद कर देता है. कांग्रेसी नेता महेंद्र कर्मा को तो वैसे भी बक्सर का टाइगर कहा जाता था. लेकिन दबी जबान में लोग उनके क्रुर व्यवहार की भी गवाही देते हैं जो आदिवासियों को कीड़े-मकोड़े समझते थे. लेकिन शायद उन्हें नहीं पता था यही कीड़े-मकोड़े जब नक्सलवाद की विचारधारा से मिलेंगे तो ऐसा विस्फोट करेंगे कि उनकी जान पर बन आएगी.


आज कई लोग नक्सलवाद और आतंकवाद को एक बताते हैं. टीवी मीडिया चन्द टीआरपी की चाह में नक्सलवाद को आधुनिक आतंकवाद और आर्म्स मार्केट से ज्जोड़ कर दिखा रही है. दरअसल इसके पीछे भी एक सोची-समझी चाल है. क्या आपने कभी किसी न्यूज चैनल में जंगल में रहने वाली आदिवासियों पर होने वाले अत्याचार के बारें में देखा है? क्या कोई मीडिया चैनल यह दिखाने की कोशिश करता है कि वन विभाग के आला अफसरों रात के अंधेरे में इन आदिवासियों पर क्या जुल्म ढ़ाते हैं?


नहीं, क्यूं? दरअसल इसके पीछे वजह है बाजार की कमी. मीडिया में आज खबरें एक प्रोडेक्ट हैं जिसका मार्केट इन जंगलों और आदिवासियों के बीच नहीं है. यहां ना कोई न्यूज देखने वाला है ना अखबार पढने वाला. जब वह इनका न्यूज नहीं देख रहें तो यह क्यूं उनकी न्यूज बनाएं. आईपीएल में आज कौन सा खिलाड़ी पकड़ा गया यह दिखाने की सभी को जल्दी है लेकिन छत्तीसगढ़ में जो कुछ हो रहा है उसकी तह तक जाने की किसी को टोह नहीं.


आज मीडिया में आज नक्सलवाद के समर्थन में बोलना पाप है. मीडिया अगर नक्सलवाद के बारें में कुछ सकारात्मक दिखा भी दे तो नीचे डिस्केलमर दे देता है कि “हम किसी भी तरह की अहिंसा की निंदा करते हैं” (दरअसल इसका अर्थ होता है हम मूल रूप से नक्सलवाद की निंदा करते हैं, बस टीआरपी के लिए थोड़ा ड्रामा कर रहे हैं). अफजल गुरु को फांसी होती है तो लोग जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करते हैं लेकिन जब आदिवासियों की जमीन, इज्जत, आबरु और सम्मान के साथ खिलवाड होता है तो सब चुप रहते हैं.


यह हालात आज कमोबेस छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश जैसे इलाकों में है लेकिन क्या सिर्फ ग्रीन हंट या सलवा जुडूम जैसी सैन्य गतिविधियों सॆ इन्हें खत्म किया जा सकता है. अगर हां, तो पूर्वोत्तर में आज भी सेना क्यूं आए दिन  अलगाववादियों से दो चार होती हैं, क्यूं कश्मीर में शांति हर पल अशांति के निगाहों में रहती हैं?


दमन की नीति को छोड़ कर अगर शांति का रास्ता ना अपनाया गया तो हो सकता है आने वाले दिनों में नक्सलवाद और अधिक उग्र हो. लोग कहते हैं कि नक्सलवादियों को लोकतांत्रिक तरीके से बातचीत का रास्ता तय करना चाहिए. लेकिन इस सच से सरकार कैसे मुंह मोड़ सकती है कि जब भी नक्सलवादियों ने बातचीत की कोशिश की, हर बार नाकामी ही हाथ लगी.


आज नवभारत में किसी महोदय ने नक्सलियों के विषय में एक खूब लाइन लिखी कि “पानसिंह तोमर हो या नक्सलवाद सभी को पालता शोषण ही है”. शोषण की रोटियां खाकर ही यह नक्सली आज गोलियों से खेलने चलें हैं.


आंख की जगह आंख निकाल लेने से दुनिया अंधी हो जाएगी. लेकिन एक आंख निकालने वाले की आंख निकाल देने से हो सकता है दूसरा कोई दुबारा आंख निकालने की हिम्मत ना करें. शायद यही नक्सलियों का नियम हो.


अंत में अपने ब्लॉग द्वारा मैं उन सभी तथाकथित बुद्धिजीवियों को एक संदेश देना चाहता हूं जो नक्सलवाद के साथ आतंकवाद को जोड़ते हैं कि नक्सलवाद एक पारिवारिक क्लेश के समान है और आतंकवाद पड़ोसी द्वारा घर में कुड़ा फेंकने जैसा. घर में अगर छोटे बेटे को प्यार ना मिले या उसे सभी सुविधाओं से विहिन रखा जाए तो वह विद्रोही हो सकता है लेकिन इस विद्रोह को घर में ही शांति से बात कर सुलझाया जा सकता है. उस बेटे को घर से निकाल देना उचित रास्ता नहीं.


(एक सामरिक और बेहद जटिल विषय पर यह ब्लॉग अपेक्षानुसार बेहद कमजोर है, कई जगह मुद्दों से भटका है, लेकिन हो सकता है आपके कमेंट्स और तर्कों से इसे एक नई दिशा मिले.)


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