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इस बाढ़ से बचो वरना तैरना सीख लो

चिठ्ठाकारी
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आज के समय में चैनलों की ऐसी बाढ़ आई है कि कहने को कुछ बाकी ही नहीं रह गया है.पचास से ज्यादा न्यूज चैनल और कई अन्य मनोरंजन चैनल पर इन सब पर है क्या. न्यूज चैनल न्यूज नहीं मसालेदार खबरें दिखाने में विश्वास रखते हैं, मनोरंजन के नाम पर फुहड़पन मिलता है और हास्य के नाम पर सेक्स का कड़वा  घूंट.

और इनके प्रोगाम भी देखिए. कोई तो अपने चैनल पर भूत को लाइव दिखाता है और तो कोई चैनल प्रेमियों की बखिया उधेड़ने में लगा हुआ है. कभी-कभी तो एक ही न्यूज को चार-चार चैनल अपनी सबसे ताजा खबर बताते हैं.

सबसे पहले बात करते हैं न्यूज चैनलों की. इन्हें सबसे बडी बीमारी है निजी जिंदगी में दखल देने की और खबर दिखाने से ज्यादा पकाने में विश्वास रखते हैं. और यह जो दिन में सीरियल्स पर शो दिखाते हैं वह न जाने किस एंगल से न्यूज नजर आती हैं.

अब तो लोग यहां तक कहते नजर आते हैं कि खबर ढूंढ़ी नहीं पकाई जाती है और वह भी भरपूर मसालेदार तरीके से. क्राइम न्यूज को सनसनीखेज की ऐसी चादर ओढ़ाते हैं कि सच छुप जाता है. चैनलों की बाढ़ में लगभग वैसा ही चोला सभी चैनलों और प्रायः सभी अखबारों ने ओढ़ रखा है. लेकिन ये बात और है कि सभी अपने को दूध का धुला मानते हैं . इन्ही पागलों की वजह से दूध के दाम बढ़ गए हैं.

विश्वसनीयता तो किसी भी चैनेल की नहीं कही जा सकती है. जहाँ सच को साहस के साथ दिखाने की बात आती है तो सभी पीछे ही खड़े मिलते हैं किन्तु यदि किसी की छीछालेदार करनी हो तो सभी आगे खड़े मिलते हैं. इनके कारण कई बार जो अपराधी नहीं होता है उसे आत्महत्या करनी पड़ जाती है क्योंकि टी आर पी के चक्कर में ये सिर्फ उसे बदनाम करने के आलावा और कुछ नहीं सोच पाते.

बिना तथ्य जाने तुरंत सबसे आगे रहने के लिए इन्हें बस खबर दिखा देनी होती है. यानी मामला कुल मिलाकर बाजार और धन का है. कोई मरता है तो मरे इनकी बला से

न्यूज में अगर कही बलात्कार या छेड़छाड़ की बात आ गई तो भईया चैनल बदलने में ही समझदारी है क्योंकि डर लगता है कि कहीं यह लाइव बलात्कार न दिखा दे क्योंकि डेमो तो यह देते ही हैं थोडा और कोशिश करेंगे तो लाइव भी दिखाने लायक हो जाएंगे.

न्यूज चैनल अगर बीस हैं तो बाकी के मनोरंजन चैनल भी उन्नीस नहीं. स्टार प्लस के साथ एकता ने टीवी की दुनिया में परिवार कलह की ऐसी आग लगाई जो बुझने का नाम ही नही ले रही. रियलिटी शो सिर्फ नाम के रियलिटी होते है बाकी सब तो मानो स्क्रिप्ट के अनुसार होता है. निजी जिंदगी को काश यह छोड़ देते मगर टीआरपी के चक्कर में आम आदमी की निजी जिंदगी में भी ताक-झांक शुरु हो गई. सेलेब्रिटी लोगों को तो चैनल वालों ने पब्लिक प्रॉपर्टी घोषित कर रखा है. सेलेब्रिटी लोगों के सुबह उठने से लेकर सोने तक का पूरा हाल इन्हें मालूम होता है.

अब ऐसे ही दो चैनलों का उदाहरण देता हूं :

1.  इंडिया टीवी : भई मेरे घर में यह चैनल लॉक है और उसकी वजह है कि यह खबर नही अंधविश्वास दिखाता है. सुबह सुबह दाती महाराज अपनी दुकान लगा लेते हैं तो दिन में भूत को दिखाए जाने का ड्रामा होता है , रात को दिन की पुरानी खबर में मसाला लगा कर ऐसे दिखाते हैं कि असली खबर पता ही नही चलती.

तलवार कांड में चैनल ने ऐसे ऐसे तथ्य रखे कि हाई कोर्ट को मजबूरन इसे डांट लगानी पडी और आजकल बाबा कांड पर इनकी ताजा खबरें मानों खुद इनके पास ब्रहमा बैठे हों.
जो कल होने वाला है इसकी भविष्यवाणी आज ही कर देते हैं.

2.  बिंदास चैनल : इस चैनल ने निजी जिंदगी में ताक-झांक का ठेका ले रखा है. चैनल पर प्रसारित होने वाले एक शो में जहां प्रेमिका अपने प्रेमी को थप्पड़ मारती है तो कहीं दो युगलों के अतरंग दृश्यों को दर्शाया जाता है.

एम टीवी पर आने वाले शो स्पलिटविला ने तो मानो सेंसर की सारी सीमाएं ही पार कर दी है और खुद सेंसर बोर्ड ने इसके कितने ही दृश्यों पर कैंची चलाई है. इस चैनल ने खास लोगों को छोडकर आम आदमी की जिंदगी में दखल देना ज्यादा बेहतर माना है.

और तो और इमेजिन चैनल पर स्वयंवर में जिस तरह के दृश्य दिखाए गए उससे तो लगता है आने वाले दिनों में यह चैनल शादी के बाद सुहागरात पर भी सीरियल न निकाल दे. इस चैनल पर बच्चों पर आधारित एक कार्यक्रम शुरु हुआ जिसमें शायद ही बच्चों के लायक कुछ था.

इन सबसे अच्छा तो तब था जब सिर्फ दो चैनल आते थे- दूरदर्शन और मेट्रो . साफ सुथरी न्यूज, साफ सुथरे कार्यक्रम और मनोरंजन भरपूर. दिन में सिर्फ दो या तीन बार खबरें दिखाई जाती थीं मगर खबर सटीक और आम जनता की होती थी न कि यह कि, आज सलमान ने लाल कमीज पहनी तो ऐश्वर्या ने आज खाना नहीं खाया वैगरह वैगरह.

वजह :ज्यादातर चैनल उद्योगपतियों और बिल्डरों के हैं…जिस ग्लोबलाइजेशन ने हमें मीडिया में भी रोज़गार के बेहतर मौके मुहैया  कराये हैं,  और झोलाछाप कहे जाने वाले पत्रकार भी लाखों की तनख्वाह पा रहे  हैं. अब ऐसे में प्रेस और मीडिया की आज़ादी पर बिना कोई कानून बनाए कैसे बंदिशें लगाई जा सकती हैं?

खबरों में मिलावट को देखते हुए सोचता हूं कि क्या देश में कोई भी ऐसा अख़बार या न्यूज चैनल  है,  जिसमें देश खुद से बात करता हुआ नजर आ रहा हो? अब सवाल यह है कि यदि ख़बर में मिलावट के खिलाफ कानून बन भी जाए, तो उसका पालन कैसे होगा?  कानून बनाने के बजाय यदि मीडिया हाउस इस मुद्दे पर गंभीर रुख अपनाये, तो बात बनती दिखेगी वरन रण फिल्म की तरह ही मीडिया का प्रदूषण सबकी जिंदगी में फैल कर तनाव पैदा करेगा.

और सिर्फ खबरें ही नही अन्य मनोरंजन चैनलों पर से कब सास-बहू का भूत उतरेगा. और मेरी मानिए तो हास्य धारावाहिक भी भूल कर बड़ों के सामने मत देखिए क्योंकि हास्य के लिए इन्होंने फुहड़ता की सारी हदें पार कर रखी हैं.

उपाय: इस बाढ़ से बचने का सिर्फ एक ही तरीका है कि अगली बार जब किसी चैनल पर कोई शो देखें तो उसकी वास्तविकता और सत्यता पर जरुर सोचें. इसके साथ ही मीडिया हाउस  को भी सोचना चाहिए कि लोगों को कहीं मनोरंजन के नाम पर वह फुहड़पन न परोसे. सीरियल को छोड़िए कम से कम न्यूज को तो बख्स ही दें.

दरअसल मीडिया को अपने दायित्व पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और इस से प्रभावित हुए बिना अपनी गरीमा बनाए रखनी चाहिए. क्योंकि आज भी आखिर वह समाज का दर्पण है मीडिया जो दिखाएगा, सब उसे ही सच मानेंगे. मीडिया यदि किसी व्यक्ति को अपराधी बताती है तो उसी वक्त से उस व्यक्ति को समाज में अपराधी की दृष्टि से देखा जाएगा और यदि किसी अपराधी को मीडिया मासूम की तरह प्रस्तुत करेगा तो समाज में उसके प्रति सहानुभूति भी स्वत: ही उपजेगी. इसलिए या तो मीडिया खुद तय करे, वह क्या परोसे (और यह नैतिकता भी उसी की है) अन्यथा तो फिर बाज़ार उसे बता ही रहा है कि उसे क्या प्रस्तुत करना है ?

आज के समय में घर लौटने पर हम सभी कुछ अच्छा और हल्की चीजें देखना चाहते हैं जो आज शायद सिर्फ एक चैनल दे रहा है और वह है “सब”  चैनल . शायद इसलिए ही इसने अपनी प्रमोशन लाईन रखी है सब का मजा सब के साथ आता है .

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