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आज हर तरफ सिर्फ मंहगाई और आतंकवाद की खबरें सुनाई दे रही हैं. मगर एक खबर ऐसी भी है जो इन बड़ी और मसालेदार खबरों की भीड़ में कहीं खोई हुई सी लग रही है. बच्चे जिन्हें हिंदू धर्म में श्रीकृष्ण का रुप माना जाता है, आज न जाने उन पर मौत का कैसा साया पडा है.
काफी दिनों से बच्चों की आत्महत्या और आशा किरण जैसी संस्थानों में बच्चों की मौत को लेकर बहुत खबरें आ रही हैं. आखिर क्या वजह है जो भगवान के रुप माने जाने वाले बच्चे दिन प्रतिदिन मौत की घाट उतर रहे हैं. आखिर जिन संस्थानों को बच्चों और असहायों की मदद के लिए बनाया गया था वहां वह स्वयं सुरक्षित नहीं हैं तो गलती किसकी है? सरकार की, संस्थान की या फिर खुद भगवान की जो अपने रुप से नाखुश हैं.
पहले तो बात करते हैं बच्चों की बढ़ती आत्महत्या की संख्या को लेकर : आज के दौर में समाज का जाल इस कदर बुना हुआ है कि उसके आगे मकड़ी के जाले भी फेल हैं. आज हर कोई अपने आप को दूसरे से आगे देखना चाहता है. इसके लिए वह खुद पर तथा अपने परिवार पर हर तरह से जोर डालता है. समाज में स्टेटस की खातिर बडे ही नहीं बच्चे भी खुद ही हर कदम उठाने को तैयार रहते हैं. सरकार जहॉ एक तरफ पढ़ाई आसान करने की कोशिश कर रही है, वहीं दूसरी तरफ बच्चे इस आसान बोझ को उठाने को भी तैयार नहीं हैं. गलती शायद परिवार से ही शुरु होती है जहां माता-पिता बच्चों पर अपनी उम्मीदों का बोझ डालते हैं. जो बच्चे शायद खुद अपनी उम्मीदों को सही से समझ नही पाते उन पर दूसरों का भी बोझ! यही कारण है जिस वजह से हाल के दिनों मे पूरे भारत में कई आत्महत्याओं के मामले सामने आए जिनमें सात साल की कच्ची उम्र से लेकर 21 साल के युवा शामिल हैं और 10-19 साल के बच्चों ने सिर्फ पढाई को लेकर मौत को गले लगाया. उन्हें किताबों का बोझ इतना भारी लगा कि उन्हें सिर्फ मौत का रास्ता नजर आया.
आशा किरण में बुझती जीवन की किरणें : “आशा किरण” दिल्ली के रोहणी क्षेत्र में स्थित इस होम को बनाया तो गया था मंदबुद्धि बच्चों की देख-रेख के लिए मगर जो आज कल हो रहा है उससे लगता नहीं कि नौनिहालों के इस होम में नौनिहाल किसी भी तरह सुरक्षित हैं. बीते दो महीनों में 23 मौतों ने राज्य के सबसे बडे संस्थान की पोल खोल दी है. और हो भी क्यों न जब 350 लोगों की जगह 750 लोगों को रखा जाएगा और सफाई तथा इंफेक्शन को भगवान भरोसे रखा जाएगा तो यह होना लाजमी है. सरकार हमेशा से आग लगने के बाद ही उसे बुझाने के लिए कुआं खोदती है. अब धीरे धीरे कई गलतियां सामने आ रही हैं तो सरकार भी सिर्फ अपनी गलती मानकर मामले को दबाने की फिराक में है.
हमारे सामने सवाल: आखिर हम क्या कर सकते हैं ? बचपन से सुना था शुरुआत हमेशा शून्य से करनी चाहिए यानी अगर हम खुद पर बोझ नही लेंगे तभी छोटे भी हमारा अनुसरण करते हुए बोझ से दूर रहेंगे. हमें अपने छोटों को जीवन की कड़वी सच्चाई से रुबरु करवाते रहना चाहिए ताकि जब खुद उनके सामने परेशानियां आएं तो वह डरे नहीं. प्रशासन को शिक्षा के स्तर को गिराने की जगह बच्चों के काउंसलरों की संख्या में इजाफा करना चाहिए.
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