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नेता या अभिनेता ?

चिठ्ठाकारी
चिठ्ठाकारी
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एक समय था जब नेता देश के लिए जान देने-लेने की बात करते थे . जमाना बदला पर्दे पर अभिनेताओं ने नेताओं को जिंदा करने की सोची ऐसा इसलिए क्योंकि कहीं न कहीं असली नेता की छवी बरकरार न रह सकी.

समय और बदला अभिनेताओं ने सोचा जब वह पर्दे पर नेता के रोल को निभा सकते है तो क्यों न असल जिंदगी में भी नेता बना जांए . सो उतर गए राजनीति के मैदान में . लोगों की बीच फैली लोकप्रियता और पैसों का प्रयोग कर बन गंए अभिनेता से नेता .

इस लिस्ट में नाम आता हैं धर्मेन्द्र ,गोविंदा, राजब्बर, हेमामालिनी, जया बच्चन , शतुध्रन सिन्हा, सजंय दत्त, चिरंजीवी आदि . इन नामों में एक चीज सामान हैं कि सभी ने राजनीति में कदम रखते हुए सोचा था कि हिन्दी फिल्मों की तरह यहां भी वह कुछ चमत्कार कर दिखाऐंगे, मगर जैसी कहावत है ” जैसी संगत वैसी रंगत ” यहां भी वैसा हुआ.

सोचा था क्या और क्या से क्या हो गया ?नेता लोगों की संगत का ऐसा असर हुआ कि खुद इन नेताओं से कोसों आगे निकल गए. जिन नेताओं को इन्होंने मार्गदर्शक चुना उनके भी क्या कहने.

अब जरा नजर डालिए धर्मेन्द्र ने अपने चुनाव क्षेत्र बीकनेर में जीतने के बाद एक बार भी वहां नही गए, गोंविदा ने संसद में प्रशन काल के दौरान आज तक कभी कोई प्रशन नही उठाया, शत्रुघन जी तो दल बदलने में माहिर हैं, संजय दत्त ने राजनीति का प्रयोग अपराधिक मामलों से राहत पाने के लिए किया तो जया बच्चन कभी राजनीति से हटने तो कभी उससे जुडने की बात करती है.

अब सवाल आता है कि क्या इन नेताओं का राजनीति के क्षेत्र में आना सही हैं क्या इससे इन अभिनेताओं के अभिनय पर असर नहीं पडेगा ? आखिर क्यों यह अभिनेता राजनीति मेंआने के बाद सब भुल जाते हैं ?

मेरे ख्याल से ऐसा नही होना चाहिए . अभिनेताओं को हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि जनता उन्हे बडे विश्वास के साथ उन्हे चुनती हैं. उनको भी अपने दायित्व का ध्यान होना चाहिए. आपका क्या ख्याल हैं…………………………

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