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उम्मीदों का बोझ या कमजोर युवा वर्ग

चिठ्ठाकारी
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सच में बीते दो-तीन दिनों में जिस तरह से भारत के दो महानगरों में छोटे बच्चों और नव युवाओं ने आत्महत्या की हैं उससे यह प्रशन तो खडा हो गया हैं कि क्या यह उम्मीदों का बोझ हैं जिसके तले अब नन्हें बच्चें भी दबते जा रहे हैं या नई पीढी इतनी कमजोर हो गई हैं जो बोझ को झेल नहीं पा रही हैं. बेशक से यह छोटी घटना लगती हो, मगर इसने सवाल बहुत बडा खड़ा किया हैं.

Hope or Burden
Hope or Burden

आज जहां हमारी सरकार शिक्षा को आसान बनाने में लगी हैं फिर भी कुछ छात्रों को यह इतनी मुश्किल लगती हैं कि वह खुद को खत्म करना ज्यादा आसान समझते हैं. मुबंई में एक साइकोथेरेपी की छात्रा और एक स्कुली छात्र ने  फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली तो दुसरी तरफ महज 14 वर्षीय छात्रा ने ( जो कई बडे डांस रियलिटी शो में भाग ले चुकी थी) भी खुद को फांसी लगाई.

सरकार का मानना हैं कि तीनों बच्चों ने फिल्म ‘थ्री इडियटस‘ से प्रेरणा लेकर यह कदम उठाया. मगर सचाई तो यह हैं कि कहीं न कहीं इन सब के पीछे सरकार, हमारा सिस्टम और अभिभावक जिम्मेदार हैं .अगर जल्द ही कोई कारगर उपाय न सोचा गया तो यह बड भी सकती हैं सरकार को बेकार बकवास करने की बजाय कुछ करने की सोचनी चाहिए.

मेरा तो मानना हैं कि यह समस्या काउंसिलिंग से सुलझ सकती हैं. अगर हर स्कुल, कॉलेज और इंस्टीटूयट में बेहतर काउंसलर होने चाहिए और यह प्रकिया पारदर्शी होनी चाहिए.

आपका क्या सुझाव व नजरिया हैं , जरुर लिखे क्योंकि यह किसी न किसी तरह हमारी और आपकी जिंदगी से ज़ुडा हुआ हैं ……………………

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